Monday, May 24, 2010

मेरे अंतीम सत्य के प्रयोग: ४७ से एके ४७ तक

गंवाई जां जिन्होने उनका कसूर तो नही था
मारा गया हर शख्क्श शहीद तो नही था

शोर जोरसे हुआ वह ईन्साफ़ तो नही था
अपनोके ही खुनसे चमकाना अपना ही नाम सही तो नही था

मरहम लगाया जहां,वहां जक्ख्म तो नही था
स्याहीने जो दिया वह धमाकोंकी बौछार का जवाब तो नही था

जवाब गोलीयों का कागजपर देना समझदारी तो नही था
कानून के आड बेईमान होना जरूरी तो नही था

हरामजादे उल्लुओंको सौपें सल्तनत
ये मुल्क इतना निकम्मा पहले तो नही था

अंदेशा जरासाभी होता ये दरींदगी का
चले जाओ ४२में मै कहता तो नही था

रहबर काश मुरली प्रसाद ४७ में मेरा होता
बार बार थप्पड खाते रहना जरूरी तो नही था

जै घोष मैं शिवाजी , भगतसींह, सुभाषकी करता
चरखा, बकरी, पंचा ,उपवास, अहींसा जरूरी तो नही था

गर आज होता जिंदा एके ४७ से खुद कसाब को उडाता
महात्मा बने रहना, यारों, जराभी जरूरी तो नही था !
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( मुरली प्रसाद = मुन्नाभाई )

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